दक्षिण बस्तर में व्याप्त कोरोना संकटकाल के बीच बढ़ते नक्सल-वारदातों से पूरा वनांचल सहम सा गया है। आज पर्यन्त तक दक्षिण बस्तर में कोरोना से हुए मौत के आंकड़े व नक्सल वारदातों में हुए मौत के आंकड़ों की प्रायिकता व दहशत लगभग समान ही है। सुदुर अंचलो में रहने वाले गरीब वनवासियों को न सिर्फ बुनियादी सुविधाएँ के लिए जूझना पड़ रहा है बल्कि नक्सल आतंक के दुष्प्रभावों का भी सामना करना पड़ रहा है। पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से भैरमगढ़ क्षेत्र में जवानों पर बाजारों में हमले, घरों में तीर-धनुष से हमले, अपहरण कर हत्या व गंगालूर क्षेत्र में ग्रामीणों की निर्मम हत्या जैसी वारदातों के बाद फॉरेस्ट के भैरमगढ़ परिक्षेत्र अधिकारी का नक्सलियों द्वारा मारा जाना अत्यंत दुखद और गंभीर विषय है।
सरकारों द्वारा अंदरूनी इलाकों तक अपनी योजनाओं के लाभ पहुंचाने के लिये जो प्रयास लगातार हो रहे हैं। इस बीच किसी बड़ी नक्सल वारदात का घट जाना कहीं न कहीं उन मासूम आदिवासियों के लिये अभिशाप की तरह है, जो सरकार से किसी सहयोग की आश में बैठे हैं और सरकारी कर्मचारी नक्सलियों के डर से चाह के भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति असहाय हो जाता है। यह पूरा चक्र कहीं न कहीं दक्षिण बस्तर के भविष्य को अंधकार की ओर ले जा रहा है।
नक्सलियों द्वारा पर्चे फेंककर सरकारी कर्मचारियों जैसे रेंजर, पटवारियों को मार भगाने की बात कही जाती है। ऐसी घटनाओं के बाद किसी रेंजर का मारा जाना, अन्य सरकारी नुमाइंदों के लिए मनोबल के टूट जाने समान है। इसके दुष्परिणाम भी उन मासूम-आदिवासियों को भोगने पड़ते हैं, जिनका इन सब बातों से कोई वास्ता ही नहीं।
सरकारों को चाहिए कि अब वे विकास पथ पर गतिमान होकर युध्द स्तर पर आपसी सामंजस्य स्थापित कर नक्सलवाद के मुद्दे पर कारगर रणनीति बनाकर काम करें। यहां गंभीरता पूर्वक ध्यान रखने वाली बात यह है कि किसी भी नक्सल उन्मूलन अभियान के दौरान कोई बेगुनाह को इसके परिणाम न भोगने पड़ें, जो कि बढ़ते नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण भी माना जाता है। इसके अलावा शिक्षा और विकास ऐसे दो प्रमुख हथियार तो हैं ही जो इस क्षेत्र के अंधकार को मिटा सकने में सक्षम है।
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