दिनेश के.जी., बीजापुर। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र दोनों प्रदेश के सीमावर्ती गांव मट्टीमरका से एक अत्यंत दुखद खबर आ रही है। महाराष्ट्र के देशीलपेटा से अपने गृहग्राम गुंलापेटा लौट रहे दो ग्रामीणों की इंद्रावती नदी में डूबने से मौत हो गई है। दोनों मृतक मट्टीमरका की विराघाट से घर जा रहे थे। घटना शनिवार दोपहर करीब 01 बजे की बताई जा रही है। जिसके बाद तहसीलदार ने मौके पर पहुंचकर परिजनों से मुलाकात की।
क्या है पूरा घटनाक्रम…
छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमाएं इंद्रावती नदी तय करती है। बीजापुर के मट्टीमरका गांव से एक दिन पूर्व ही महाराष्ट्र के देशीलपेटा में ‘कामडी गोपाल’ (53) और ‘मुलकर गणपत’ (42) शादी के कार्यक्रम में शामिल होने गए हुए थे। जहां से आज इन्द्रावती नदी को पार कर दोनों अपने घर गुंलापेटा वापस आ रहे थे, जहां लंबी नदी को तैरकर पार करने की नाकाम कोशिश ने दोनों की जानें ले ली। करीब 800 मीटर चौड़ी इंद्रावती नदी पार करते दोनों नदी की गहराई में डूब गए, जहां दोनों की मौत हो गई। दोनों को अन्य लोगों ने डूबते देखा और बचाने नाव करीब लेकर पहुंचे, पर जब तक गहरी नदी से दोनों को बाहर निकाला गया तब तक दोनों की मौत हो चुकी थी। बता दें कि मृतकों में एक तैराक था, जो अपने डूबते साथी को बचाने की जद्दोजहद में खुद की जान गंवा बैठा।
क्या पर्याप्त है सरकारी संवेदनाओं का मुआवजा रूपी लेप..?
घटना के बाद भोपालपटनम तहसीलदार ने मट्टीमरका जाकर मृतकों के परिजनों से मुलाकात की। दोनों मृतकों के परिजनों को बतौर फौरी राहत 5-5 हजार रुपये अंत्येष्टि के दिये गए। दोनों मृतकों को शासन द्वारा दी जाने वाले आर्थिक मुआवजा राशि का प्रकरण तैयार किया जा रहा है। ब्लॉक मेडिकल अफसर अजय रामटेके ने बताया कि इंद्रावती नदी में डूबने से दो लोगों की मौत हो गई। दोनों के शवों का पोस्टमार्टम किया गया, जिसमें पानी में डूबकर मरने की पुष्टि हुई है।
बेबस ग्रामीणों से सरकारों का नहीं कोई सरोकार
बड़ा सवाल है कि क्यों बस्तर के अंदरूनी ग्रामीण क्षेत्रों में आए दिन इस तरह संसाधनों के अभाव के चलते मासूम ग्रामीणों की जानें जातीं हैं? क्या इन ग्रामीणों के जान का कोई मोल नहीं है? सरकारें जिसकी भी हों, क्या ये ग्रामीण सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के लिए बनें हैं? अगर नहीं, तो क्यों इन अंदरूनी क्षेत्रों के साथ चुनाव जीतने के बाद शौतेला व्यवहार किया जाता है? सड़क, पुल, पुलिए के आंकड़ो पर विकास की गाथाएँ लिखने वाली सरकारें क्यों नहीं इन मासूमों की विडंम्बनाओं को समझतीं, क्या इन क्षेत्रों के थोड़े से विकास से राजनीतिक दुकानें बंद हो जायेंगी, अगर नहीं तो अपने अंतरात्मा से पूछिएगा कि क्या गलती थी इन दो ग्रामीणों की, आपको वोट देना या मजबूरी में घर पहुंचने की जद्दोजहद में अपनी जानें देना?