प्लास्टिक बनाम प्रकृति, एक अदृश्य युद्ध : एक मूक पुकार – प्रकृति की आवाज, “प्रकृति को जो दोगे, वही लौट कर आएगा”

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प्लास्टिक बनाम प्रकृति, एक अदृश्य युद्ध

(एक मूक पुकार – प्रकृति की आवाज)

जंगल के किनारे एक सुंदर सी नदी बहती थी, जिसके किनारे पेड़ झूमते थे, पंछी चहचहाते थे और मछलियाँ पानी में खेलती थीं। वहाँ पास ही एक गाँव था, जहाँ लोग रोज़ाना नदी के किनारे पिकनिक मनाने आते, लेकिन साथ में लाते प्लास्टिक की बोतलें, चिप्स के पैकेट और थैलियाँ… और छोड़ जाते वहीं।

एक दिन नदी की एक नन्ही सी मछली – ‘नीली’ ने एक रंगीन प्लास्टिक का टुकड़ा निगल लिया, जो चिप्स के पैकेट का था। उसका पेट दर्द से भर उठा। उसने अपने दोस्त कछुए बाबा टर्टल से पूछा – “ये क्या था?”

बाबा टर्टल ने भारी आवाज़ में कहा – ये इंसानों का छोड़ा ज़हर है। हर साल लाखों जीव इसी ज़हर से मरते हैं।

नीली की हालत बिगड़ती गई। उसने आकाश की ओर देखा, जहाँ एक चील उड़ रही थी। वो भी कभी प्लास्टिक में फँस चुकी थी। जंगल के सारे जानवर अब डरने लगे थे।

फिर आया मानसून.. जिससे बाढ़ आ गई। पानी ने सारी प्लास्टिक नदी में बहा दी, जिससे खेत बर्बाद हुए, गाँव डूबा और खुद इंसानों की ज़िंदगी खतरे में आ गई।

एक बूढ़े माली ने गाँव की सभा में कहा –
“हमने जो फेंका, वही लौट आया। अब भी वक़्त है, अगर हम नहीं बदले, तो ये प्रकृति हमसे बदला लेगी।”

गाँव ने फैसला लिया –
“प्लास्टिक नहीं, अब कपड़े की थैली।
हर बच्चे को देंगे ज्ञान की पिटारी।
धरती माँ को देंगे तोहफा – स्वच्छता, हरियाली और प्यार”

आज उस गाँव में नदी फिर से मुस्कुराती है, जानवर बेखौफ खेलते हैं और बच्चे हर साल “नो प्लास्टिक डे” मनाते हैं – क्योंकि उन्हें पता है, प्रकृति को जो दोगे, वही लौट कर आएगा।


शिक्षा : प्लास्टिक की मार, प्रकृति की पुकार

प्लास्टिक कोई साधारण चीज़ नहीं, यह प्रकृति का सबसे धीमा ज़हर है। इसका बहिष्कार सिर्फ एक जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक संकल्प है – अपनी आने वाली पीढ़ियों को बचाने का।


 

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