सीजीटाइम्स। 10 जून 2019
जगदलपुर। विश्व के पंचम मौलिक जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका सुश्री गोपिकेश्वरी देवी के सान्निध्य में सिरहासार भवन में आयोजित आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला का रविवार को दूसरा दिन था। सुश्री देवी जी द्वारा आस्तिकता के संबंध में विस्तृत प्रकाश डाला गया।
उन्होंने अपने उदबोधन में कहा कि स्वयं को शरीर मान लेने के कारण ही सारी गड़बड़ शुरु हुई । शरीर मान लेने से फिर शरीर के रिश्तेदार और शरीर के सुखों के प्रति आसक्ति हो गई और दुःखों से हम घिरते गए । हमारा वास्तविक स्वरुप तो जीवात्मा का है, शरीर तो केवल भगवान को प्राप्त करने हेतु दिया गया है । हमको इसी मनुष्य शरीर में भगवान को जानने का प्रयास करना चाहिए । किन्तु उनको जाना कैसे जाय? वेद भारतवर्ष की सबसे बड़ी अथॉरिटी है, उसने कहा कि उसे तो कोई भी नहीं जान सकता है । भागवत (6-17-32) में शंकर जी कहते हैं कि उसे तो मैं, ब्रम्हा, विष्णु, नारद आदि भी नहीं जान सकते फिर नर पामर कर केतिक बाता। क्यों नहीं जान सकते उसका कारण है कि वह भगवान इन्द्रिय, मन, बुद्धि से परे है । परे अर्थात ये सब उन तक पहुँच नहीं सकते । और जानने के साधन हमारे पास यही है । संक्षेप में यह कि मायिक साधनों से दिव्य तत्व का ज्ञान नहीं हो सकता है । राम अतर्क्य बुद्धि मन वानी, मत हमार अस सुनहु सयानी – मानस कहती है । तब यह भी सत्य है कि जब जाना ही नहीं जा सकता तो फिर उसके बाद मानना, विश्वास होना, फिर प्यार होना – यह सब कैसे होगा? भगवान को लेकर हमारी जो क्रियाएँ दिखती हैं फिर वे क्या हैं?
ऐसी है हमारी आस्तिकता:
सुश्री देवी जी ने कहा कि हम यह जो समझते हैं कि हमारा भगवान से बड़ा प्यार है और हम आस्तिक हैं, यह बहुत बड़ा धोखा है हमको । कैसा है हमारा प्यार? संसार में उक्ति है ‘राम नाम सत्य है’ लेकिन हम इसे श्मशान तक ही सीमित मानते हैं । भगवान का नाम सत्य है और सर्वत्र सत्य है लेकिन शुभ कार्यों, मांगलिक उत्सवों में राम नाम सत्य है कहना अपशगुन मानते हैं । अपने बेटे आदि के लिए जन्मदिन पर महँगे से महँगा कपड़ा खरीदते हैं लेकिन भगवान के लिए सबसे सस्ता कपड़ा लेते हैं । मंदिरों में चप्पल उतारकर जाते हैं तो आधा ध्यान चप्पल पर ही रहता है। जितना विश्वास और जितना भय हमको संसारी लोगों यहाँ तक कि नौकर पर होता है उतना भी हम भगवान पर नहीं करते। नौकर से कहते हैं कि यह लाख रुपया बैंक में जमा कर आओ, किन्तु भगवान से कहते हैं कि पहले तुम कृपा करो तब हम तुमको प्रसाद चढ़ाएंगें। इस प्रकार की भक्ति, पूजा-पाठ हम भगवान से करते हैं, यह तो घोर नास्तिकता ही है, प्यार हरगिज नहीं है।
कैसे जाने जायेंगे भगवान?
वे भगवान जिस पर कृपा कर दें, बस वही भगवान को जान सकता है। भगवान कृपा द्वारा हमारी इन्द्रिय, मन, बुद्धि को दिव्य बना देते हैं, फिर उसी दिव्य इन्द्रिय, मन, बुद्धि से भगवान को देख, सुन, सूंघ आदि सकते हैं । भगवान की कृपा के संबंध में और भी विस्तृत बातें हैं और यह भी एक रहस्य है कि क्या भगवान ही जीव से सब कुछ कराते हैं, या जीव ही सब कुछ करता है? इसका उत्तर भी हमको जानना जरूरी है।
शराब पीना सबसे बड़ा महापाप है:
पाप के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि चोरी, झूठ आदि सब पाप कहलाते हैं। इनसे ऊँचा होता है महापाप जो कि 5 होते हैं – सोने की चोरी, शास्त्रज्ञ ब्राम्हण की हत्या, गुरुपत्नी के प्रति दुर्भावना, शराब पीना और इन चारों में सहायता करने वाला। इनमें शराब पीना सबसे बड़ा महापाप है, जिसके लिए रौरव नरक का दंडविधान है। शराब पीकर वह अपने शरीर और अपनी आत्मा का नाश तो करता ही है, अपने परिवार और समाज की भी हानि करता है। महापाप से भी ऊँचा है नामापराध, संत एवं भगवान के विरुद्ध कुछ भी सोचना, बोलना, करना सब नामापराध है जिसकी कोई माफी किसी शास्त्र में नहीं लिखा। कभी भी भूलकर संत-भगवान के विपरीत नहीं सोचना चाहिए, उनके कार्यों में बुद्धि नहीं लगानी चाहिए।
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